
दिल्ली दंगों में सिर्फ वे लोग नहीं मारे गए जो उस दिन शहीद हो गए, बल्कि कुछ ऐसे भी हैं जो जिंदा होकर भी मौत को जी रहे हैं। उनमें से एक नाम है– गुलफिशा फातिमा. एक 30-31 साल की एमबीए ग्रेजुएट, जो लगभग पिछले 5 सालों से जेल में बंद है, बिना सुनवाई के।
2019 में, CAA-NRC के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हुए। दिल्ली के शाहीन बाग, जाफराबाद, सीलमपुर जैसे इलाकों में महिलाएं धरने पर बैठीं। इसी दौरान दिल्ली में दंगे हुए, जिनमें 53 लोगों की मौत हुई। गुलफिशा भी सीलमपुर के प्रदर्शन में शामिल थीं, जहाँ वे महिलाओं और बच्चों को पढ़ाती थीं।
9 अप्रैल 2020 को उन्हें दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। आरोप थे—दंगे भड़काना, साजिश रचना, यहाँ तक कि "मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश" करना ! उन पर UAPA लगा दिया गया, जिसमें जमानत मिलना मुश्किल होता है।
क्या सच में गुलफिशा गुनहगार थीं?
- वे एक साधारण पढ़ी-लिखी लड़की थीं, जो प्रोफेसर बनना चाहती थीं।
- उनके परिवार का कहना है कि वे सिर्फ शांतिपूर्ण विरोध में शामिल थीं।
- पुलिस का दावा है कि वे "पिंजरा तोड़" संगठन से जुड़ी थीं, लेकिन उनके वकील और परिवार इससे इनकार करते हैं।
5 साल से जेल में, बिना सुनवाई के
- 31 बार कोर्ट में मामला टला।
- दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देने से इनकार कर दिया।
कविताएँ: जेल की दीवारों से फूटती आवाज़
गुलफिशा ने जेल में जो कविताएँ लिखीं, वे उनकी बेबसी और सिस्टम पर उठाए गए सवाल है:
- जो इंसाफ की उम्मीद बयाँ करते हैं।
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इतिहास के इम्तिहान में
सब याद कर लेती
पर भूल जाती
बस तारीख..
अब सब जाती हूं भूल
पर याद रहती है
बस तारीख़
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सुनो फैज!
क्या तुम्हें पता है?
तुम्हारे और हमारे इंतज़ार का फर्क है महज़
वक्त-ए-मुअय्यन
फ़क़त चंद रोज और...
ये जानते थे तुम
दस्ते सबा की तरह
बेजबान अब्र नहीं बताता कुछ
जब मैं पूछती हूँ
“ऐसे कितने मौसम और?
जाने कितने मौसम और…?”
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क्या यह सिर्फ गुलफिशा की लड़ाई है ?
नहीं, यह हमारे लोकतंत्र और न्याय प्रणाली पर सवाल है। क्या असहमति को आतंकवाद कहा जाएगा? क्या बिना सुनवाई के सालों जेल में रखना न्याय है?
हम किस समाज का निर्माण कर रहे हैं?
गुलफिशा की कहानी सिर्फ एक लड़की की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की है जहाँ :
• शिक्षा पर आतंकवाद का लेबल चस्पां किया जाता है।
• कविताएँ सबूत बन जाती हैं।
• तारीखें सजा बन जाती हैं।
आज गुलफिशा जेल से लिख रही है, लेकिन कल कोई और हो सकता है। अगर हम चुप रहे, तो कल को यह हम किसी के साथ भी हो सकता है।
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“चलो माना तुम सर्वशक्तिमान हो,
पर मुझे सिर्फ अपना मानकर दिखाओ…”
–गुलफिशा फातिमा
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गुलफिशा की कविताएँ पढ़िए, उनके सवाल सुनिए—शायद आपको भी लगे कि यह सिर्फ एक लड़की की नहीं, हम सभी की आवाज़ है।
समझिए…सोचिए...और सवाल कीजिए।
NOTE:
यह केस सिर्फ एक कानूनी मामला नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की परीक्षा है। गुलफिशा की कविताएँ हमें याद दिलाती हैं कि जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाना कभी 'अपराध' नहीं होना चाहिए।

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